होली के रंग

श्रुचि सिंह

होली कहलाया रंगों का त्योहार,

याद रह गये चिप्स, पापड़, गुझिया और अबीर-गुलाल।

प्राकृतिक और केमिकल रंगों में उलझ गए, 

कई दिनों से आधे दिन में सिमट गए।

व्यस्तता में बाज़ार के पकवान पकड़ बना चुके,

घरों में पीढ़ियों पुराने व्यंजन कहीं छूट रहे।

बच्चे, बूढ़े, पड़ोसी सब महीना पहले जुट जाते थे, 

बातों में कब सबके पापड़-गुझिया बने पता न चल पाते थे।

guj

भागते-भगाते एक-दूसरे को रंगों में सराबोर करते हैं,

तेल-उबटन से रंगों की पकड़ कमज़ोर करते हैं। 

नाच-गाना, मौज टोलियों में हो रही,

ईख और चने की बाली इंतेज़ार कर रही।

अंधेरे में होलिका के साथ स्व-पाप का भी दहन कर लें,

दिन के उजियारे में अच्छाई, आशा और सज्जनता के रंग भर लें।

लाल रंग से जीवन में उत्साह, उमंग भर लें,

पीले से स्वास्थ्य भी सँवार लें।

हरे से समृद्धि और प्रकृति का आँचल थाम लें,

नीले से शांति और विश्वास बाँट लें।

केसरिया से शुचिता का वास करायें,

और गुलाबी से बालपन और निश्छलता जानें।

रंगों सा मेल-मिलाप सौंदर्य भरा हो,

जिसमें अपनी-अपनी पवित्रता का बल बड़ा हो।

अपनी-अपनी बुराइयों, कुकर्मों की क्षमा याचना कर लें,

जिनको दुखी किया उन्हें वापस अपना बना लें।

‘बुरा न मानो होली है’ का नारा सच कर दें,

क्षमा माँग लें, क्षमा कर दें, और पापों को नष्ट कर दें।

होली के रंगों में पवित्रता का रंग जोड़ लें,

‘बुरा न मानो होली है’ से बुराई नष्ट कर दें।

Dr. Shruchi Singh, Research Associate, Kuruom School of Advanced Sciences (An Indian subsidiary of ‘Institute of Advanced Sciences’)

रंगीले संदेश की संवाहक ‘होली’

डा. अपर्णा धीर

बचपन से ही होली मेरा favourite festival था।

कुछ दिन पहले से ही बाल्टी भर-भर के गुब्बारे फुलाने

और फिर उन गुब्बारों को किस पर मारे, इस पर मंत्रणा करना…..

जब कोई मिल जाए तो कौन निशाना लगाएगा, इस पर छत्तों से शोर मचाना… और फिर दबे पांव किसी एक का निशाना…. और बाकियों की हंसी-ठ्ठके की गूंज पूरी गली को मानो ‘जीवंत’ बना देती थी।‌

बड़े हुए तो पता लगा, होली तो खेला ही टोलियों में जाता है…….

एक टोली से दूसरी टोली- कितने रंगे, कितने भीगे, कितने बचे, कितने फंसे….. इस गणना में, क्या पता कितने किस टोली में घटे तो कितने किस टोली में बड़े। 

यह तो जब मुंह दुलता है, तब पता चलता है……

‘अरे! यह तो फलाने का लड़का है…इससे तो हमने पूरी उम्र बात न करने की कसम खाई थी, यह कैसे हमारी टोली में आ गया?’

फिर लगता है ‘अरे! अच्छा ही है जो हमारी टोली में आ गया, मस्ती तो……इसी ने हमें खूब कराई थी।’

यही तो ‘पागलपन’ होली की मस्ती कहलाती है,

जो अपने-पराये के भेद को विभिन्न रंगों में रंग कर…. एक नई तस्वीर बनाती है

रूप-रंग, अमीर-गरीब, काला-गोरा सब कुछ छुपाकर, ‘एकत्व’ भाव में लीन होना सिखाती है।

जन-जन को ‘एक’ करें,

पर उससे पहले…. सम्पूर्ण धरा को विभिन्न रंगों से रंगीन बनाती है।

कहते हैं ‘दीपावली-होली’ साल के सबसे बड़े त्यौहार हैं…..

एक में ‘दियों की लड़ी’ तो दूसरे में ‘रंगों की बौछार’ रहती है,
एक में ‘भगवान के आगमन’ की खुशी तो दूसरे में ‘भक्त की भक्ति’ की पराकाष्ठा दिखती है,

‘अमावस-पूर्णमासी’ का यशोगान ‘दर्शपूर्णमास’ के रूप में वेदों से चला और…….पुराणों में यही ‘सूर्य-चंद्र’ की गति ‘श्रीराम-प्रह्लाद’ के चरित्र के बखान की प्रतीकात्मकता बन….. संपूर्ण ब्रह्मांड को विनाश और अराजकता से बचाते हुए, गुढ़ अर्थ को समेटे हुए, परस्पर खुशी का निर्देश देते हुए, विश्वपटल पर ‘भारतीय-संस्कृति’ का परचम लहरा रहे हैं।

तो क्यों ना हम….स्वयं को प्रकृति की गोद में बैठा हुआ जाने?
तो क्यों ना हम….रंग-बिरंगी प्राकृतिक ऊर्जा से ओजस्वी बने?
तो क्यों ना हम….दुखों की कालिमा को सुखों के प्रकाश से जगमगा दें?
तो क्यों ना हम….हमसफर, हमराज़, हमराही बन सृष्टि के बहुरंगों में समा जाएं?

– डा. अपर्णा धीरअसिस्टेन्ट प्रोफेसर, इन्स्टिटयूट आफ ऎड्वान्स्ट साइन्सीस, डार्टमोथ, यू.एस.ए.