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धनतेरस की लक्ष्मी

सुश्री अनुजा सिन्हा हर वर्ष जब दीपावली आने वाली होती है तो मुझे एक अलग-सा एहसास होता है, एक सुखद अनुभूति होती है। पर्व-त्योहारों की चल रही शृंखला में रोशनी के त्योहार दीपावली की अपनी ही एक सुंदरता है। मुझे जो अनुभूति होती है, उसका एक कारण यह भी है कि मेरा जन्म धनतेरस के…
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2023 का रक्षाबन्धन-त्यौहार : राखी आज बाँधे या कल…..?

डा. अपर्णा धीर खण्डेलवाल श्रावण मास की पूर्णिमा रक्षाबन्धन के त्यौहार के नाम से जानी जाती है। इस दिन को इस तिथि को ध्यान में रखकर वर्षों से मनाया जाता आ रहा है, परन्तु 2023 में एक नया शब्द सुनने में आया ‘भद्रा’। यूं तो यह भद्रा-काल ज्योतिषीय काल विशेषज्ञों के द्वारा विचार करने योग्य…
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‘Like-Dislike (पसंद-नापसंद)’ के झमेले में संवाद की पराकाष्ठा

-प्रोफ़ेसर बलराम सिंह एवं डॉ. अपर्णा धीर खण्डेलवाल प्रोफेसर बलराम सिंह एवं डॉ. अपर्णा धीर खण्डेलवाल के परस्पर संवाद की एक झलक। जिसमें किसी विषय को याद दिलाकर डॉ. अपर्णा ने प्रो. सिंह से वार्तालाप प्रारंभ किया, जिसके उत्तर और प्रतिउत्तर में यह चर्चा साधारण से असाधारण का रूप ले गई – डॉ. अपर्णा –…
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आईए, समाज को समाज से जोड़ें!

डा. अपर्णा धीर खण्डेलवाल कभी-कभी जिंदगी के छोटे-छोटे किस्से भी बहुत बड़ी सीख दे जाते हैं और हम कभी उन्हें वैसे महसूस नहीं करते। लेकिन जब सामने हो रहे होते हैं, तब किसी याद के रूप में वह अक्सर हमें भीड़ में भी अकेला कर देते हैं यानी वह हमें उस पल में पिछली जिंदगी…
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हरे रंग में छुपी हुई मेरे रिश्तों की नज़दीकियाँ

डा. अपर्णा धीर खण्डेलवाल रंग हमारे जीवन में उल्लास लाते हैं, यह तो सभी कहते हैं…….  पर यही रंग, हमें हमारे रिश्तों से भी जोड़ते हैं, क्या कभी हम ऐसा महसूस कर पाते हैं? जी हां! मैं बात कर रही हूं अपने जीवन की, जहाँ मुझे मेरे ही रिश्तों से जोड़ा हरे रंग ने। जब…
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गांव से सैर – लड़ाई की नीति, रणनीति, एवं जीवन की सीख

बलराम सिंह कहानी मेरी छठी कक्षा के दूसरे सप्ताह की है। मैं करीब 11 साल का था। मेरे गाँव का एक लड़का था, अनिल सिंह, जो कि अपनी बहन कृष्णा सिंह के साथ, सातवीं कक्षा में पढता था। वे हमारे गांव के एक पट्टीदार परिवार से थे, जिसका सैकड़ों साल पुराना कुछ हद तक एक…
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गांव का स्नेह-सत्कार

-डॉ. आशा लता पाण्डेय गाँव, गांव की माटी और माटी की सोंधी गंध….सब मेरी आंखों में, सांसों में रची-बसी है। गांव से बचपन की बहुत सी यादें जुड़ी हैं। बचपन में बहुत बार गांव में आना-जाना होता था। चाचा-चाची, काका-काकी, दादा-दादी वहां रहते थे। शहर से गांव पहुंचने पर बड़ा ही स्नेहमय स्वागत होता था।…
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शहर की सड़कों से गांव के गलियारों तक

डा. अपर्णा धीर खण्डेलवाल अक्सर शहरवासियों का मानना है की गांव में रखा क्या है? और ऐसा होता भी है जब हम शहर की चकाचौंध और अपने शहरी लिबास में रहते हैं तो हम गांव की उन छोटी-छोटी बातों को अनदेखा कर देते हैं। ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी हुआ जब मैं आज से…
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गाँव : देश की धड़कन

Alok Kumar Dwivedi भारत गाँवों का देश माना जाता है। महात्मा गांधी के इस भाव को उनके वैचारिक अनुयायी आज भी स्वीकार करते हैं। उनके वैचारिकी में भारत का गाँव सुविधाविहीन, अशिक्षित, असंस्कारित एवं दिशाहीन होकर सुशिक्षित, संस्कारयुक्त, संपोष्यभाव को अपनाए हुए तथा जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के सक्षम रूप में उपस्थित होता…
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बेटवा कै लड्डू

बलराम सिंह इ बात होए क़रीब सन १९९२ कै, जब हमय मासाचूसेट्ट्स यूनिवर्सिटी मॉ पढ़ावत क़रीब दुई साल भा रहा होए। वैसे तौ अमेरिका मॉ रहत हमका लगभग नौ साल होईगा रहा, लकिन विद्यार्थी जीवन कै बात कुछ और होथै, सब पढ़ाई लिखाई के काम मॉ लगा रहाथे,  एतना फ़ुरसत नाहीं मिलत कि कौनव सामाजिक…
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