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गांव का स्नेह-सत्कार

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गांव का स्नेह-सत्कार

-डॉ. आशा लता पाण्डेय

गाँव, गांव की माटी और माटी की सोंधी गंध….सब मेरी आंखों में, सांसों में रची-बसी है। गांव से बचपन की बहुत सी यादें जुड़ी हैं। बचपन में बहुत बार गांव में आना-जाना होता था। चाचा-चाची, काका-काकी, दादा-दादी वहां रहते थे। शहर से गांव पहुंचने पर बड़ा ही स्नेहमय स्वागत होता था। तब यातायात के इतने साधन नहीं थे तो कभी बैलगाड़ी में, कभी मियांना (पालकी) में चढ़कर जाते थे। करीब आधा घंटा लगता था सड़क से गांव तक पहुंचने में।

जैसे ही हम लोग पहुंचते  थे, पीतल की चमचमाती परात में ठंडे -ठंडे पानी में पैर धोया जाता था। इतना आनंद आता था कि सारी थकान उतर जाती थी और फिर नाउन, काकी बोलते थे हम उनको, वह आकर हम लोगों का पैर दबाती थीं। ठंडे-ठंडे पानी में पूरी थकान उतार के हम सभी तरोताजा हो जाते थे।

खाने के समय हम सभी भाई-बहन चाचा के बच्चे और हम लोग जब खाने बैठते थे तो हमारी काकी हम लोगों की थाली में अपने बच्चों की थाली से ज्यादा घी डालती थीं। यह बात हमें आज तक याद है। हम लोगों के आने की खबर मिलते ही गाँव के सभी लोग मिलने आते थे परोसी दादा (पड़ोस वाले दादा), पडा़इन काकी (पाण्डे काका की धर्म-पत्नी), बरा काका (इस नाम की भी बड़ी रोचक कहानी है कि जब थोड़ा हकलाने वाले शिवपूजन ने अपनी शादी में खाने पर दुबारा से बड़े माँगे तब से पूरा गांव उन्हें ‘बरा’ के नाम से ही जानता है और उनकी पत्नी बन गई बराइन काकी -इन प्रत्यय लगाकर डाक्टराइन, वकीलाइन, मास्टराइन आदि सम्बोधन सुविधानुसार बना लिये जाते थे) और भी इसी तरह के बहुत से लोग जो सम्बन्धी न होते हुए भी सम्बन्धियों जैसे सम्बोधन से बुलाये जाते थे।

ऐसा प्यार आज की दुनिया में कहां? आज तो ये हो गया है कि मैं, मेरा पति और मेरे बच्चे….यहीं तक दुनिया सीमित होकर रह गई है। गांव का जुड़ाव और गांव का स्नेहभरा वातावरण कहीं भी नहीं देखने को नहीं मिलता। आज के तनाव वाले इस युग में यदि हम गाँवों से इस तरह का प्यार, आदर सीख-सिखा सकें तो बहुत सी समस्याऐं हल हो सकती हैं।

तो यह रही मेरी कुछ यादें मेरे गांव की और भी बहुत-सी मीठी यादें हैं…जो हम आपसे समय-समय पर साझा करते रहेंगे तब तक के लिए आप सबको मेरी राम राम।

डॉ. आशा लता पाण्डेय, संस्कृत-शिक्षिका (अवकाश प्राप्त), दिल्ली पब्लिक स्कूल, दिल्ली

 

2 Responses

  1. विश्वजीत विद्यालंकार says:

    अब आधुनिकता की चकाचौंध में सब खो गया है। स्नेह स्वार्थ में बदल गया है। ये थुकुराइन, धोबिन, कहारिन सिर्फ पिछली पीढ़ी वाले ही बचे हैं। उनके बच्चे भी हमारी तरह पढ़ लिख कर अथवा व्यापार वा शिल्प से अपना व्यक्तिगत जीवन का सुख प्राप्त करने लगे हैं।

  2. डॉ शुचिता पांडेय says:

    आत्म विभोर कर देने वाली यादें , हमारी मिट्टी इसी से तो हमारी पहचान हैं।

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