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शहर की सड़कों से गांव के गलियारों तक

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शहर की सड़कों से गांव के गलियारों तक

डा. अपर्णा धीर खण्डेलवाल

अक्सर शहरवासियों का मानना है की गांव में रखा क्या है? और ऐसा होता भी है जब हम शहर की चकाचौंध और अपने शहरी लिबास में रहते हैं तो हम गांव की उन छोटी-छोटी बातों को अनदेखा कर देते हैं। ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी हुआ जब मैं आज से लगभग 4 वर्ष पहले उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर ज़िले में बसे ’कुरूऊँ गाँव’ गई।

वहां जाकर मैं समझ पाई कि वास्तव में प्राकृतिक रूप में मिला हमें यह जीवन अत्यंत सरल है परंतु हम शहरवासियों ने उसे कॉम्प्लिकेटिड बना दिया है। क्यों नहीं हम सहजता से जीवन जी पाते? क्यों नहीं हम जो खाते हैं उसे सरलता से ग्रहण कर पाते? ऐसे ही कुछ बातों को जब मैंने गांव में कुछ दिन रहते हुए करीब से जाना तो समझ आया कि ग्रामीण शैली ही वास्तव में बहुत सहज और साधारण है।

सौभाग्यवश मुझे तीन-चार दिन ’कुरूऊँ गाँव’ में रुकने का अवसर प्राप्त हुआ। वहाँ मेरे ही कार्यालय के निदेशक का ग्रामीण गृह है। यह गांव की मेरी सर्वप्रथम विज़िट थी।

उस अवसर के दौरान मुझे कभी यह महसूस नहीं हुआ कि मैं उनके परिवार का हिस्सा नहीं हूं क्योंकि बच्चे मुझे ‘बुआ’ बुलाने लगे और बड़े मुझे ‘बेटी’। यूं तो हम शहर में भी अपने घर आए मेहमान को सम्मान देते हैं परंतु उन्हें पारिवारिक हिस्से के रूप में समझ कर बातचीत करना यह शहर में कम देखने को मिलता है। वहां रहते हुए परिवार के बच्चों के साथ में इतना घुल मिल गई कि उन तीन-चार दिनों में बच्चे मुझे एक दिन अपने खेत दिखाने ले गए| जैसे ही हमने घर से बाहर कदम रखा, वहां से ही उनका खेत शुरू हो गया और मैं आराम से जैसे हम शहर में गर्दन ऊंची करके चलते हैं…उसी तरह चलने लगी। तभी मेरे साथ चल रहे 3 साल के बच्चे जोकि मेरे निदेशक के ही भाई का पोता है, उस तेज बल सिंह ने एकदम से मेरा कुर्ता खींचा और मुझे झुककर देखने को कहा ” बुआ! आप आराम से चलिए, यहां हमने मटर बॉय हुई है”। मैं देखकर दंग रह गई कि अभी तो भूमि से अंकुर भी बाहर नहीं आए हैं…भला इस 3 साल के बच्चे को इतना ज्ञान कैसे? क्या यह घर में हो रही बातों को सुनता है? क्या यह खेत में जाकर काम करता है? यह कैसे जान पाया कि जिस स्तह पर मुझे केवल मिट्टी दिखी वहाँ  मटर उगने वाली हैं।

और इस तरह कुछ दूर तक गांव के उन खेतों को घुमाते हुए और उगाए हुए अन्न के विषय में जानकारी देते हुए छोटे-छोटे कदमों से चलते हुए….. घर के बच्चे मुझे गांव के सरल जीवन का ज्ञान दे गए।

डा. अपर्णा धीर खण्डेलवाल, असिस्टेन्ट प्रोफेसर, इन्स्टिटयूट आफ ऎड्वान्स्ट साइन्सीस, डार्टमोथ, यू.एस.ए.

 

3 Responses

  1. पढ़कर अच्छा लगा। गांव के जीवन का अनुभव ऐसा ही होता है। वहां जिंदगी हमारे बगल से गुजरती रहती है।
    – देवेंद्र चौबे जेएनयू

  2. Pooja narang says:

    Well done!! Very nice..

  3. Manu says:

    Very impressive… Nice thought…

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